आज समाज में व्याप्त तमाम अपराधिक प्रवृत्तियों में सबसे ज्वलंत अपराध है महिला यौन शोषण। यह समाज की मानसिक विकृति व विक्षिप्तता की स्थिति है जो हमारे मनु स्मृति के वचन ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ पर आधारित सनातनी संस्कृति व शिक्षा पर एक बहुत बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक व धर्मप्रधान देश में इंसानों की पाश्विक प्रवृति क्या संकेत दे रही है?
2012 में भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ जघन्य निर्भया आपराधिक हत्या काण्ड के दोषी आज भी दंडित नहीं हुए। भारत की लचर न्यायव्यवस्था 7 वर्ष से अधिक समय लेकर भी अपराधियों को सजा नहीं सुना पायी है। जबकि अपराधी रंगे हाथ पकड़े गए, अपराध भी कुबूल किया। किन्तु न्यायव्यवस्था न जाने किस असमंजस की स्थिति में रहती है। त्वरित निर्णय ले ही नहीं पाती। अपराध पर अपराध होते जाते हैं, न्यायव्यवस्था आंखों में पट्टी बांधे बस न्याय का तराजू हाथ में थामे मूर्तिवत खड़ा रहती है।
छोटे से लेकर बड़े मुद्दों पर आग उगलने वाले ओवैसी के क्षेत्र हैदराबाद में महिला डाक्टर के साथ जो हुआ, उसे बयान करने में शब्द भी शर्मिन्दा है। जो दुर्दान्त, घृणित व शर्मनाक कुकृत्य एक चिकित्सक के साथ चार पाश्विक, पैशाचिक प्रवृत्ति के निकृष्ट लड़कों ने किया, उसकी जितनी निंदा की जाये, कम है। हालांकि उनके द्वारा किये की सजा तेलांगाना पुलिस ने दे दी है। अब भले ही पुलिस की कार्यशैली पर सवालिया निसान लगाया जाये।
वैसे भी ऐसा उचित रहेगा कि ऐसे अपराधों की सीधी सजा फाँसी यानीकि मृत्युदण्ड होनी ही चाहिए और समाज में कुछ जागरूक वर्ग द्वारा कहीं कैंडल मार्च निकालने व नारेबाजी तक सीमित न रहा जाये।
ज्यादातर ऐसे अपराधों पर विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका सब कान में रुई डालकर बैठे रहते हैं इसी प्रतीक्षा में कि कब सब शांत हों और मुकदमों की फाइलों के ढेर में एक और फाइल लग जाये बरसों बरसों तक के लिए।
महिला अपराध, यौन शोषण, बलात्कार, हत्या की कड़ी में आये दिन एक न एक घटना जुड़ती चली जाती है। जन-परिजन यूँ ही चिल्लाते, चीखते रह जाते है। धीरे धीरे सब शांत हो जाता है, आंख के आंसू सूखने लगते हैं, रह जाती है तो बस प्रतीक्षा पीड़िता को न्याय दिलाने की, अपराधियों को कड़ी सजा दिलाने की।
समझ से परे है कि जहां देश 21वीं सदी की ओर बढ़ रहा है, शिक्षा का स्तर उच्च से उच्चतर हो रहा है, सामाजिक भेदभाव समाप्तप्राय हैं, नारी कर्तव्य निर्वहन में घर से लेकर बाहर तक प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के बराबर खड़ी हो, वहाँ नारी को दोयम दर्जा देकर उसे उपभोग की वस्तु माना जाए, रास्ते चलते उस पर अपमानजनक फब्तियाँ कसी जायँ, हेय दृष्टि की टिप्पणियां की जाएं। नारी प्राकृतिक रूप से कोमलांगी है, मृदुला है किंतु कमजोर नहीं। इतिहास साक्षी है त्रेता युग से कलयुग तक। नारी ने हर युग में प्रतिमान गढ़े है। सामान्यतयः पुरुष समाज से प्रताड़ित होकर, अपमानित होकर, आये दिन गृह हिंसा की शिकार होकर, समाज व परिवार की विसंगतियों को झेलकर भी हर तबके की महिला स्वयम को मजबूती से खड़ा किये हुए है। यह बड़े गर्व की बात है।
किन्तु सामाजिक विडम्बना देखिए, दुराचारियों का दुस्साहस देखिए कि सड़क छाप निम्न स्तरीय पुरुषवर्ग भी पढ़ी लिखी महिलाओं की अस्मिता से खेलने से गुरेज नहीं करता। स्वयं को स्वयम्भू मानकर चलता है। बड़े घरों के सुविधाभोगी बिगड़ैल हों या वंचित वर्ग के दिग्भ्रमित, बीमार मानसिकता के, सब एक ही पायदान पर खड़े है। सभी व्यसनों के शिकार।
कहाँ जा रहा है भारत का भविष्य, कहाँ जा रही हमारी सनातनी संस्कृति?
यदि कुछ व्यवस्था में बदलाव हो सके तो शायद इस तरह के कृतघ्न निंदनीय असामाजिक,अराजक गति विधियों पर अंकुश लग सके।
पहले तो हमारी न्यायव्यवस्था दुरस्त हो। यदि अपराध सिद्ध हो गया हो, साक्ष्य उपलब्ध हों, अपराधी द्वारा कुबूल कर लिया गया हो तो अपराध जे अनुसार त्वरित कार्यवाही हो, तदनुसार सजा सुनाई जाए।
शिक्षा व्यवस्था में सुधार की महती आवश्यकता है।हम जिस आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हो रहे हैं, पाश्चात्य सभ्यता जो कि हमारी भारतीय संस्कृति से कहीं से भी मेल नहीं खाती, चाहे वेश भूषा हो चाहे खान पान हो,उसके भक्त बन रहे हैं।ये हमारी संस्कृति व सभ्यता के लिए घातक है। हमारी शिक्षा व्यवस्था से नैतिक शिक्षा का कहीं लोप हो गया है।हमारी पीढ़ी जो नैतिक शिक्षा को एक विषय के रूप में पढ़ती थी। आज वह है ही नहीं। तो शिक्षा में प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नैतिक मूल्यों की शिक्षा अनिवार्य हो।
चूंकि इस तरह के कुकृत्य मानसिक विकलांगता की ओर संकेत करते हैं। तो समाज में लोगों की समय समय पर काउंसलिंग भी हो। परामर्श केंद्र नियमित चलें जहाँ लोगों को निरन्तर शिष्टाचार के प्रति सजग व जागरूक किया जाए।
सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है-नशाखोरी। समाज में व्याप्त सभी अपराधों की जड़ में है-नशाखोरी। जिस पर सरकार न तो कभी ध्यान देती है न ही देने की कोई उम्मीद है। कारण है मोटा राजस्व। शराब के ठेकों को खुल कर लाइसेंस दिए जाते हैं। चाहे पास में शिक्षालय हो, पूजास्थल हों, रिहायशी क्षेत्र हो, कोई दिक्कत नहीं। शराब के ठेके बंद हो जाये, नशाबंदी हो जाये तो 90प्रतिशत अपराधों पर अंकुश लाया जा सकता है। महिला यौन शोषण, बलात्कार, हत्या, घरेलू हिंसा व अन्य तमाम अपराध नशे में किये जाते हैं। या तो जनता इतनी सुदृढ आत्मवबली हो कि नशा उपलब्ध हो और वो न करे, ठेकों का बहिष्कार करें। जो कि सम्भव ही नहीं। फिर क्या? ठेके ही बंद हो, ड्रग्स का व्यापार बंद हो। यह सबसे कारगर उपाय है समाज सुधार का।
पुनः ऐसे कुकृत्यों की घोर निंदा करते हुए ऐसी आशा करती हूँ शायद मेरे लिखे कुछ शब्द कारगर हो सकें, समाज का हित हो सके।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)